चिरांद गाथा

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चिरांद

रासेश्वर सिंह ”टुन्ना“

धन्य मेरी मातृभूमि!


मुझे वह दिन याद है जब 5.12.2008 को चिरांद विकास परिषद की ओर से मोटरसाइकिल रैली निकाली गई थी और अवसर था सिने अभिनेता मनोज तिवारी के आगमन का। परिषद के कार्यकर्ताओं ने, जिसमें मैं भी शामिल था, श्री तिवारी का अभिनंदन किया। सार्वजनिक रूप से परिषद की गतिविधियां मेरी समझ में यहीं से शुरू होती हैं। इसकी स्थापना के पीछे सुलझे हुए मस्तिष्क वाले व्यक्तियों की परिकल्पना यह थी कि चिरांद के गौरव को पुनर्स्थापित किया जाए, जिससे क्षेत्र का विकास हो और नौजवानों को सकारात्मक कार्य करने की प्रेरणा मिले। हिंदुस्तानियों में धर्म की पकड़ गहरी है, जिसे हम विभिन्न त्योहारों पर महसूस करते हैं। इन आयोजनों में कुंभ एक बड़ा आयोजन है, जिसके माध्यम से विद्वज्जन जुटते हैं और यह समाज से सीधे संवाद का एक बड़ा मंच साबित होता है। इसी को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2009 में गंगा महाआरती कराने का विचार आया। चूंकि परिषद की स्थापना के छह माह भी नहीं हुए थे, अतः सभी लोगों तक यह विचार पहुंचाने के लिए एक बैठक बुलाई गई, जिसमें चिरांद गांव के नौजवान युवकों से लेकर बुजुर्गों तक ने भाग लिया और अपने सुझाव व विचार रखे। गांव का गढ़देवी मंदिर उस पहली बैठक का गवाह है। लेकिन, जैसे-जैसे हमारे प्रयास बढ़े, हम कुछ लोगों की आंख की किरकिरी बनते गए और बाद की बैठकों में शामिल होने वाले लोगों की संख्या घटती चली गई। लेकिन मां गढ़देवी व गंगे के आशीर्वाद से हम आगे बढ़े और यह आयोजन गांव-जवार के लिए एक उदाहरण बन गया। पहले आयोजन के समय हमने मानव संसाधन की काफी कमी महसूस की। इस कारण हमारे कुछ मित्र-साथी अगले साल के आयोजन की संभावना के संबंध में भी निराश हो गए, इस कहावत को याद करते हुए कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। लेकिन प्रयास जारी रहा और बिहार सरकार के मंत्रियों व पदाधिकारियों के चिरांद आने का दिन भी आया। वर्ष 2010 की फरवरी माह में मुख्यमंत्री स्वयं चिरांद आए। मुख्यमंत्री ने कहा कि वे पर्यटन के विकास की संभावनाओं को तलाशने की दृष्टि से नालंदा, वैशाली आदि स्थानों का भी दौरा कर चुके हैं, लेकिन वहां के लोग नहीं जानते कि चिरांद कहां है। दरअसल, समय के प्रवाह की धूल-गुबार ने चिरांद को इतना आच्छादित कर दिया कि उसकी महत्ता विस्मृत हो गई। कुछ दिनों बाद जब चिरांद विकास परिषद चिरांद के विकास को कुछ आगे ले गई, तो कुछ स्वार्थी तत्वों ने यह भ्रम फैलाना शुरू किया कि देश में कई चिरांद हैं। यह कैसे माना जाए कि तुलसीदास ने इसी चिरांद का वर्णन किया है? लोगों ने कहना शुरू किया कि पुरातात्विक स्थल चिरांद सारण में नहीं, बल्कि कहीं और है। लेकिन इस अफवाह को स्वयं पुरातत्व विभाग ने खारिज कर दिया और खुदाई में मिले अवशेष इसका प्रमाण बन गए। इससे यह अवधारणा पुष्ट हो गई कि चिरांद में प्राचीन सभ्यता-संस्कृति पल्लवित-पुष्पित हुई थी। इस भ्रम को दूर करने में चिरांद विकास परिषद के सदस्यों ने अपनी सक्रिय भूमिका अदा की। मुझे दुख तब होता है जब अपनी मातृभूमि के लिए किए गए प्रयासों को लोग शक की दृष्टि से देखते हैं। शायद, चिराग तले अंधेरा इसी को कहते हैं। खैर, विरोध से हमें शक्ति ही मिलती है। सिर्फ चिरांद के विकास के लिए ही नहीं, विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं में भी चिरांद विकास परिषद ने लोगों की सहायता की। ठंड के दिनों में कंबल वितरण, छठ व अन्य त्योहारों पर चाय आदि का वितरण, आगलगी व अन्य आपदाओं में जरूरी वस्तुओं का वितरण परिषद द्वारा किया जाता रहा है। व्यंग्य एवं विरोधों को झेलते हुए चिरांद विकास परिषद मजबूती के साथ आगे बढ़ रही है। हमने व्यंग्य से निराश होने के बजाय इससे शक्ति प्राप्त की। खुशी इस बात की है कि हमारी बुराई करने वाले लोग अधिक हैं, तो हौसला बढ़ाने वाले लोग भी कम नहीं। मुझे मेरी मातृभूमि पर गर्व है और मैं इसके विकास के लिए चिरांद विकास परिषद के साथ आजीवन कार्य करूंगा।