चिरांद गाथा

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चिरांद

श्रीश्री 108 कृष्णगिरि नागा बाबा

चिरांद महिमा!


संसार के इस रंग-मंच पर अगणित प्राणी नित्य ही आते हैं और सभी अपनी भूमिका निभा कर अंतरिक्ष में विलीन हो जाते हैं। कुछ महापुरूष नहीं रहते हैं परंतु उनका त्याग, उनकी तपस्या, दान की प्रवृत्ति आकाष पटल और जनमानस के मन में अंकित हो जाते हैं। यही लोग आने वाली पीढ़ी के लिए प्रेरणा-स्रोत बनते हैं। संसार दृष्यमान परमाणुओं से आच्छादित है, परंतु इससे अधिक चैतन्य सत्ता से ओत-प्रोत है। इस आवागमन की श्रृंखला में धरती पर महान दानी और त्याग की मूर्ति महाराज मौरध्वज का पदार्पण हुआ। आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व सारण्य जिले के चिरांद नगरी में प्रकाषदीप बनकर सद्चरित्र, सद्विचार, त्याग, दान और आनंद की ज्योति किरण सम्पूर्ण धराधाम पर बिखेर कर परमधाम को लौट गए। चिरांद की पावन भूमि पर उनकी परीक्षा लेने के लिए स्वयं भगवान कृष्ण पधारे थे। भगवान स्वयं गीता में कहते हैं- यद् यदाचरति श्रेष्ठस्तत् तदेवेतरो जनः स यत् प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनुवर्तते।। अर्थात, श्रेष्ठ पुरूष जो-जो आचरण करता हैं, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही करते हैं, वह महापुरूष जो कुछ आदर्ष स्थापित करता है, लोक (संसार के लोग) भी उसके अनुसार बर्तते हैं। यह चिरांद नगरी जहाॅं महादानी मौरध्वज थे, वहीं वीर पुरूष उनके आत्मज ताम्रध्वज भी थे जिनसे अर्जुन भी युद्ध करके परास्त हुए थे। इस नगरी का राजकण व अवषेष दान और वीरता का संदेष देता है। यह पावन भूमि है, जहाॅं योगेष्वर भगवान श्रीकृष्ण के पदारविन्द पड़े हैं और अपना आषीर्वाद दे रहे हैं। यहाॅं गंगा, सोन ओर गंडक का संगम इस नगरी की षोभा बढ़ाता है। यह निर्णय कर पाना मुष्किल है कि यह संगमरूपी ज्ञान इस नगरी का दर्षन करते हैं या यहाॅं के लोग संगम का। या यूॅं कहें कि एक दृष्य है तो दूसरा श्रव्य। ‘हेतू रहित जग-जुग उपकारी। तुम्ह-तुम्हार सेवक असुरारी’ ।। ओऽम राम्।। जागृत होता एक तीर्थ