चिरांद गाथा

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चिरांद

मृत्युंजय कुमार त्रिपाठी

स्मृतियों का चिरांद!


तब हम न तो छपरा से परिचित थे और न ही चिरांद से। हाॅं, छपरा नाम से अवष्य परिचित थे। तब, जब हम पहली बार इस छपरे षहर में आए थे। हमें पूरी तरह याद हैै, दिन मंगलवार था और तिथि थी- 04 जनवरी सन् 2005। छपरा में अपने प्रथम आगमन की तिथि याद रहने की वजह यह है कि इसी तिथि को हमने दैनिक जागरण समाचार-पत्र के स्थानीय कार्यालय में अपना योगदान दिया था और सभी जानते हैं व्यक्ति अपनी पहली नौकरी का पहला दिन अक्सर भूला नहीं करता। हम भी नहीं भूले हैं। कार्यालय में कार्य करते हुए हमारी आॅंखों के सामने से छपरे षहर के साथ-साथ पूरे जनपद क्षेत्र की खबरें गुजरती थीं। काम करते हुए कुछ माह गुजर चुके थे। कार्यालय में ग्रामीण क्षेत्र से आयीं खबरों के सम्पादन का कार्य हमारे सहयोगी गाजीपुर के श्री षैलेष तिवारी देखते थे। उन्हें अवकाष पर जाना हुआ तो यह जिम्मेवारी कुछ दिनों के लिए हमें मिली। एक दिन, तमाम खबरों को देखते हुए हमने एक खबर पढ़ी तो हमें लगा कि यह खबर कहीं अधिक महत्वपूर्ण है और इसमें कुछ और तथ्यों की आवष्यकता है। संयोगवष खबर लिखने वाले पत्रकार श्रीराम तिवारी उस समय कार्यालय में ही मौजूद थे। खबर के अंत में उन्हीं का नाम था, लिहाजा मैंने उन्हें अपने पास बुलाया और उस खबर से संबंधित और जानकारियां मांगी। वे हमसे उम्र में काफी बड़े दिखे, बावजूद उन्होंने काफी नम्रता के साथ हमें सुना और जरूरी तथ्यों के साथ अगली खबर देने की बात कही। वह खबर चिरांद से संबंधित थी। बस, उसी दिन पहली बार हमने चिरांद के बारे में जाना और पहली ही बार श्रीराम तिवारी जी से भी मुखातिब हुए। इसके पूर्व, यदि मिले भी हों तो हमें याद नहीं। इसके बाद चिरांद से संबंधित खबरें लगातार आने लगी थीं और जैसे-जैसे ये खबरें सामने से गुजर रही थीं, हमारी जानकारियाॅं इस धार्मिक-पुरातात्विक-ऐतिहासिक नगरी के संबंध में व्यापक होती जा रही थीं और इसी के साथ इस धर्मनगरी से हमारी आस्था भी जुड़ती जा रही थी। साथ ही, रह-रहकर एक प्रष्न भी मन में कौंध उठता था कि अब तक हमने चिरांद के बारे में कैसे नहीं सुना? कैसे नहीं पढ़ा? यह तो देष व विष्वस्तरीय स्थल है, फिर उत्तर-प्रदेष की पुस्तकों में इसका नाम क्यों नहीं? पहली कक्षा से लेकर आठवीं तक तो कभी यूपी बोर्ड की पाठ्य-पुस्तकों में चिरांद दिखा नहीं था? (हमने आठवीं तक की षिक्षा यूपी में ग्रहण की थी।) क्या ऐसे स्थलों के बारे में भी क्षेत्रवाद षब्द का अस्तित्व है? आगे चलकर साफ हो गया कि बात क्षेत्रवाद की नहीं, ”घर की मुर्गी दाल बराबर“ की है। जब बिहार सरकार ही अपने प्रदेष में इस स्थल की खोज-खबर नहीं लेती तो फिर, यूपी सरकार को क्या पड़ी है अपनी पाठ्य-पुस्तकों में इसे स्थान देने की? वर्ष 2008 में दैनिक जागरण के ब्यूरो चीफ के रूप में श्री कृष्णकांत ओझा जी ने अपना योगदान दिया। माह षायद अक्तूबर या नवम्बर रहा होगा। जिस चिरांद से अब तक सिर्फ खबरों के माध्यम से हम रू-ब-रू थे, उनके साथ वहाॅं जाने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। चिरांद में ही श्रीराम तिवारी जी का निवास है और हम सब उनके ही निमंत्रण पर वहाॅं पहुंचे थे। तिवारी जी (सब उन्हें इसी उपनाम से जानते-पुकारते हैं।) के यहाॅं जलपान और फिर भोजन के उपरांत उस चिराॅंद को देखने की जिज्ञासा हमने सबसे प्रकट की, जिसकी खबरें हम देखा-पढ़ा करते थे। षायद, हमारी जिज्ञासा, सबकी इच्छा थी और इसलिए सब उस स्थल की ओर चल पड़े। कल-कल करती गंगा के तट पर स्थित उस पुरातात्विक स्थल पर पहली बार पहुंचने की तिथि हमें याद नहीं लेकिन उस पहली बार के बाद हम वहाॅं बार-बार गए हैं। कच्ची व उबड़-खाबड़ सड़क से होकर तिवारीजी के घर से करीब 200 मीटर दूर उस स्थल पर पहुॅंचे। पहली नजर में सिर्फ एक मैदान नजर आया था। हमें बताया गया कि यही पुरातात्विक स्थल है तो बहुत निराषा हुई, साथ ही घोर आष्चर्य कि ऐसे स्थल की ऐसी उपेक्षा? खुद से ही हमारा प्रष्न भी हुआ था। खैर, अब हम एक ऐसे स्थान के पास खड़े थे, जिसे कंटीले तारों से घेरा गया था और एक गेट लगाया गया था। गेट के पास ही एक जर्जर बोर्ड लगा था, जिस पर अंकित कुछ वाक्य स्पष्ट थे, तो कुछ वाक्यों को दिख रहे षब्दों के माध्यम से समझने का हम प्रयास कर रहे थे। साथ खड़े तिवारी जी ने सबका ज्ञान बढ़ाया था- यह पुरातत्व विभाग द्वारा घोषित संरक्षित क्षेत्र है। कुछ जानकारियाॅं मिलने के बाद उस बोर्ड पर अंकित अस्पष्ट अच्छर भी स्पष्ट हो गए थे। बिहार सरकार के पुरातत्व विभाग द्वारा लगाए गए बोर्ड पर अंकित आदेषानुसार इस संरक्षित क्षेत्र में किसी तरह के निर्माण पर मनाही थी। बोर्ड पर चिरांद में हुई खुदाई की अवधि व कुछ अन्य जानकारियाॅं भी थीं। इस स्थल के संबंध में आगे की जानकारी न तो कहीं अंकित थी, और न ही कोई बताने वाला ही था। तिवारीजी को षायद सबकुछ कंठस्थ था, और वे हमारे-हम सभी के प्रष्नों का जवाब मौके पर ही देते जा रहे थे। हम यह नहीं समझ सके थे कि उन्हें यह जानकारियाॅं कहाॅं से प्राप्त हुई थीं, यहाॅं तो सिर्फ एक भूमि-खण्ड था, कॅंटीले तार थे, एक जर्जर गेट था और कुछ वैसा ही जर्जर पुरातत्व विभाग का बोर्ड...। चिरांद के उस पुरातात्विक स्थल से हमारी पहली भेंट व पहला अनुभव यही था, जिसकी स्मृतियाॅं कुछ-कुछ अब धूमिल भी हो गई हैं। चिराॅंद को लेकर सबके मन में यह बात थी कि इसका अपेक्षित विकास नहीं हुआ है। हमारे मन में भी यह बात थी, सबके मन में थी लेकिन दो व्यक्ति ऐसे थे जो इसे लेकर अधिक गंभीर थे। एक, चिराॅंद की ही मिट्टी में पले-बढ़े श्रीराम तिवारी जी और दूसरे श्री कृष्णकांत ओझा जी। एक ही उद्देष्य रखने वाले दो व्यक्ति यदि अपरिचित भी हों तो वे मित्र होते हैं। यहाॅं तो तिवारी जी और कृष्णकांत ओझा जी एक-दूसरे से पूर्व परिचित थे फिर तो जब उद्देष्य मिले तो संबंधों के साथ-साथ उद्देष्य में भी नई जान आ गई। यद्यपि, चिराॅंद के उत्थान के लिए तिवारीजी का कार्य पूर्व से षुरू था, तथापि उसे गति देने में कृष्णकांत ओझा जी का योगदान बहुमूल्य है। दोनों का ही स्नेहपात्र होने के कारण उनकी बातचीत में अक्सर ही हम षामिल रहते थे और जितना कि कोई और जानता है, हमें लगता है- हम अधिक जानते हैं चिरांद के संबंध में श्री कृष्णकांत ओझा व श्रीराम तिवारी के प्रयास व उनके योगदान को। आज जिस चिरांद विकास परिषद् को छपरा व सारण में सभी जानते हैं, हम उसकी बुनियाद के पीछे के कठोर प्रयासों से भी वाकिफ हैं। जब इन दोनों व्यक्तियों ने मिलकर चिरांद को उसका हक दिलाने का प्रयास आरंभ किया तब वे लोग भी इसमें षामिल हो गए जो इनके जानने वाले थे, या फिर चिरांद को जानने वाले थे। काम, मीडिया के माध्यम से लोगों को चिरांद के संबंध में जागृत करने से ही आरंभ हुआ था। आगे चलकर बैठकें होने लगीं। कार्यक्रमों के आयोजन होने लगे और फिर चिरांद के उत्थान चाहने वालों का एक सांगठनिक स्वरूप भी उभरकर सामने आया- चिरांद विकास परिषद् के रूप में। इसके बाद, यहाॅं पहली बार बिहार के पीएचईडी मंत्री अष्विनी चैबे आए, मुख्यमंत्री नीतीष कुमार आए, मंत्री सुखदा पांडेय आयीं...। नेताओं व अधिकारियों के पाॅंव पड़ने लगे तो चिरांद की भूमि में भी विकास की संभावनाएॅं जागृत होने लगीं। ये संभावनाएॅं तो तभी बन गयी थीं, जब परिषद् ने अपना प्रयास षुरू किया था लेकिन तब वह एक उम्मीद के रूप में ही थी। मुख्यमंत्री के आगमन के बाद सारण के पदाधिकारियों की आॅंखें भी इस स्थल की ओर गयीं और पुरातात्विक स्थल को नापने- सीमा निर्धारण की दिषा में पहल षुरू हुई। जब यह कार्य षुरू हुआ तो स्थानीय लोगों में हलचल-सी मच गई। कम पढ़े-लिखे लोगों की बड़ी आबादी ने ऐसा समझा, या उन्हें समझा दिया गया कि सीमा निर्धारण होने से उनकी जमीनें चली जाएंगी। हमें स्पष्ट तो नहीं है कि चिरांद के पुरातात्विक स्थल पर कुछ लोगों का अवैध कब्जा है, लेकिन हमें यह सुनने को जरूर मिला है कि कुछ लोग पुरातात्विक स्थल की भूमि पर बसे हैं, कुछ उस पर खेती करते हैं तो कुछ उसको अब अपना ही भूमि-खण्ड मान व घोषित कर चुके हैं। जाहिर है, ऐसे लोगों को खतरा हुआ कि उनकी वे जमीनें उनसे छीन ली जाएंगी, जो उनकी है नहीं लेकिन वे अब तक अपनी ही मानते रहे हैं। इसके साथ ही विरोध का स्वर मुखरित हुआ। सबका मानना था कि इसकी जड़ में चिरांद विकास परिषद् ही है और उसी की करनी से उनका नुकसान होने वाला है। हालांकि अब यहाॅं के अधिकतर लोग समझ चुके हैं कि सीमा निर्धारण से किसी का नुकसान नहीं होने वाला, बल्कि क्षेत्र का विकास ही होगा। फिर भी, कुछ ऐसे हैं जो समझने को तैयार न तब थे, न अब हैं और इसी का परिणाम है कि अभी तक प्रषासन पुरातात्विक स्थल का सीमा निर्धारण भी नहीं कर पाया है, उसे अतिक्रमणमुक्त कराने व विकसित कराने की बात तो अभी दूर है...। एक और भ्रम है, जिस पर स्थानीय लोगों द्वारा पुरातात्विक स्थल के विकास कार्यों का विरोध किए जाने की बातें सामने आती रही हैं। चिरांद को लिए हुए इसके पष्चिम व पूरब दूर-दूर तक गंगा, सोन, सरयू के किनारे बालू घाट हैं। इन घाटों पर हजारों-लाखों लोगों को रोजी-रोजगार है। कुछ ओछी सोच वालों ने यह अफवाह फैला दी कि चिरांद को पर्यटन स्थल घोषित कर दिए जाने से बालू व्यवसाय में लगे लोगों का रोजगार छिन जाएगा...। भला कहीं ऐसा हुआ है? किसी स्थल विषेष को पर्यटन क्षेत्र घोषित किए जाने के बाद वहाॅं विकास की असीम संभावनाएॅं बनती हैं और इसी के साथ हजारों रोजगार भी पनपते हैं। जो यह समझते हैं कि इस स्थल के पर्यटन क्षेत्र घोषित किए जाने से उनका रोजगार जाता रहेगा, उन्हें यह बात समझनी चाहिए कि इस क्षेत्र के पर्यटन-क्षेत्र के रूप में विस्तार पाने के बाद उनका मूल रोजगार तो रहेगा ही, अन्य के लिए भी रोजगार-सृजन होगा और क्षेत्र के साथ इससे जुड़े व्यक्तियों, परिवारों का विकास स्वतः ही होने लगेगा। षायद इन्हीं अफवाहों ने सरकार को इस क्षेत्र के विकास से रोके रखा। जहाॅं के निवासी ही वहाॅं के विकास के प्रति गहरी नींद में हों, वहाॅं का विकास क्या कभी संभव है? चिरांद के साथ ही यही हुआ। बने रास्तों पर चलने वाली सरकार ने भी कभी रास्ता बनाने की नहीं सोची, प्रयास नहीं किया और विष्व का अद्भुत स्थल विष्व के लिए अदृष्य-अनजान बना रहा...। चिरांद विकास परिषद की हम दाद देते हैं कि उसने सरकार-सी नहीं सोची और नया रास्ता निर्मित करने का प्रयास किया। चिरांद के संबंध में अब सरकार भी हिली-डुली है, इसमें संदेह नहीं लेकिन अभी वह प्रयास नहीं दिख रहा जो चिरांद को वैष्विक पहचान दिला दे। हमारी समझ में, सबसे पहले सरकार को चिरांद के विकास के लिए वह कार्य किए जाने चाहिए जो सबसे सुगम, सहज और आसानी से होने वाले हैं। बीएसईबी की पाठ्य-पुस्तकों में चिरांद को स्थान दिया जाना चाहिए, इसके साथ ही छात्रों द्वारा परिभ्रमण किए जाने वाले स्थानों की सूची में चिरांद का नाम भी जोड़ा जाना चाहिए ताकि उन्हें इस स्थल को जानने-देखने का अवसर मिले। उच्च षिक्षा के इतिहास की पुस्तकों में चिरांद का चैप्टर अवष्य होना चाहिए, जो बिहार की गौरव-गाथा को अन्य प्रदेषों व देषों को सुनाएगी। हाॅं, इन सब सहज कार्यों के साथ धरातलीय परेषानियों से निबट उस चिरांद को पर्यटन-क्षेत्र भी अवष्य घोषित किया जाना चाहिए, जहाॅं इसकी असीम संभावनाएॅं हैं। चिरांद को प्रणाम! (लेखक माॅडर्न मीडिया सर्विसेज आॅफ इंडिया के समन्वयक हैं व समाचार-पत्र दैनिक जागरण से जुड़े हैं।)