चिरांद गाथा

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चिरांद

कृष्णकांत ओझा

जागृत होता एक तीर्थ!


प्राचीन खंडहरों व पुरातात्विक स्थलों का इतिहास जब फिर से जिंदा होता है तब वह स्थान एक तीर्थ का रूप धारण कर लेता है। ऐसे तीर्थ स्थल जन समूह को सहज ही आकर्षित करते हैं क्योंकि वहां वे अपने पूर्वजों की कीर्ति देख रोमांच व हर्ष का अनुभव करते हैं। ऐसे स्थान फिर से उठ खड़े होने व इतिहास रचने की प्रेरणा देते हैं। गंगा-सरयू व सोन के संगम पर स्थित पुरातात्विक व ऐतिहासिक स्थल चिरांद भी एक ऐसा ही परम तीर्थ है जो धीरे-धीरे जागृत हो रहा है। यह विष्व के दुर्लभ पुरातात्विक स्थलों में से एक है क्योंकि इसने इतिहास की स्थापित मान्यताओं को बदला है। गंगा के मैदान में पहली बार नव पाषाण युग से लेकर बाद के कालों के पुरातात्विक अवषेष यहां मिले हैं। खुदाई में यहां से प्राप्त अवषेषों से पता चलता है कि इस स्थान पर हजारों वर्षों से लोग निवास करते रहे हैं। प्राचीन काल में यहां एक समृद्ध सभ्यता व संस्कृति थी। चिरांद से जुड़ी मान्यताएॅं इसे एक तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित करती हैं। वहीं दस वर्षों की खुदाई से प्राप्त हजारों पुरावषेष इसकी प्राचीनता के गवाह हैं। ऐसे महत्वपूर्ण स्थल को एक प्रसिद्ध सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित होना चाहिए था। परंतु पुरातात्विक, ऐतिहासिक व धार्मिक दृष्टिकोण से अतिमहत्वपूर्ण यह स्थल हाल तक गुमनाम रहा। इसे गुमनामी के गर्त से बाहर निकालने के सामूहिक प्रयास के तहत चिरांद विकास परिषद् का उदय हुआ है। प्राचीन काल में छपरा को पहचान देने वाले चिरांद की पहचान अब छपरा के पास स्थित एक छोटे से गांव के रूप में हो गयी है। लेकिन चिरांद स्थित गंगा तट पर पहुंचते ही एक अद्भुत आकर्षण का अनुभव होता है। जो चिरांद के विराट का आभास करा जाता है। षायद ऐसा ही अनुभव रामचरित मानस की रचना कर राम कथा को घर-घर पहुंचाने वाले लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास ने किया था। रामचरित मानस के बालकांड में गोस्वामी जी ने इस तीर्थ क्षेत्र का अत्यंत भावनापूर्ण व रोचक वर्णन किया है। गोस्वामी जी ने गंगा, सरयू व सोन के मिलन से बनने वाले इस तिमुहानी के पवित्र जल को त्रिविध तापों का नाष करने वाला बताया है। महर्षि बाल्मीकि रचित रामायण में भी इस तीर्थ का वर्णन है। इस प्रकार यह स्थान रामसर्किट का महत्वपूर्ण बिन्दु है। जिन्ह में रही भावना जैसी, प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी की तरह चिरांद को भी विभिन्न रूपों में देखने-समझने वाले हैं। पुरातत्व व इतिहास में रूचि रखने वाले इसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल मानते हैं। उनके विचार में इस स्थान की अभी और खुदाई होनी चाहिए ताकि मानव के विकास की कहानी के कुछ और प्रसंग सामने आये। वहीं चिरांद को धर्म नगरी मानने वालों का विचार है कि राजगीर की तरह चिरांद भी योगेष्वर श्रीकृष्ण की प्रमुख लीला भूमि है। यहाॅं भगवान श्रीकृष्ण अपने परम षिष्य अर्जुन के साथ आए थे। यहाॅं उन्होंने दानी राजा मौरध्वज की कठिन परीक्षा ली थी। इस परीक्षा के माध्यम से उन्होंने अर्जुन का भ्रम दूर किया था। इस प्रकार यह मथुरा, वृंदावन व राजगीर की तरह एक परम तीर्थ स्थल है। वहीं कुछ विद्वानों का मत है कि यह स्थान गौतम बुद्ध के सबसे प्रिय षिष्य आनंद से जुड़ा हुआ है। इस प्रकार यह बुद्ध सर्किट का एक महत्पूर्ण बिन्दु है। वहीं सनातन परंपरा को मानने वाले कहते हैं कि तीन पवित्र नदियों के संगम पर बसे होने के कारण चिरांद तीर्थराज प्रयाग की तरह ही श्रेष्ठ तीर्थ स्थल है। नदियों के संगम पर सत्संग व षास्त्रार्थ की प्राचीन परंपरा रही है। अतः चिरांद में भी कुम्भ जैसा आयोजन किया जाना चाहिए। वहीं काषी व हरिद्वार जैसे तीर्थ स्थलों पर गंगा पूजन की परंपरा से प्रेरणा लेकर चिरांद में भी माता गंगा की भव्य महाआरती का आयोजन षुरू किया गया। पहली बार गंगा दषहरा के अवसर पर यह आयोजन हुआ था। इस अवसर पर गंगा महाआरती व गंगा बचाओ संकल्प समारोह का आयोजन किया गया। अब यह आयोजन ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन होता है। यह चिरांद का वार्षिक समारोह का रूप धारण कर चुका है। इस अवसर पर गंगा महाआरती व गंगा बचाओ संकल्प के साथ ही भव्य सांस्कृतिक समारोह का भी आयोजन किया जाता है जिसमें सारण ही नहीं बल्कि बिहार व उत्तर प्रदेष के विभिन्न स्थानों से समाज के विभिन्न क्षेत्रों के लोग षामिल होते हैं। यह आयोजन पिछले चार वर्षों से हो रहा है। इस प्रकार चिरांद से संबंधित विविध प्रकार के विचार व परिकल्पनाएॅं हैं। चिरांद के गौरवषाली अतीत को पुनस्र्थापित करने में इन सबका महत्व व उपयोगिता है। इन विविध विचारों के बीच समन्वय स्थापित कर ही चिरांद के विराट स्वरूप को एक बार फिर सामने लाया जा सकता है। इसके लिए बौद्धिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, धार्मिक, राजनीतिक पहल आवष्यक है। सारण प्रवास के दौरान बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार चिरांद गये थे। वहां के पुरातात्विक स्थल की दुर्दषा देख वे दुखी हुए लेकिन नदी तट के प्राकृतिक दृष्य ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर लिया। मात्र दस मिनट का उनका कार्यक्रम दो घंटे के कार्यक्रम में तब्दील हो गया। इस अवसर पर चिरांद विकास परिषद् की ओर से एक चित्र प्रदर्षनी का आयोजन किया गया था। मुख्यमंत्री ने चित्रों के माध्यम से चिरांद के पुरातात्विक व ऐतिहासिक महत्व को समझा। चिरांद विकास परिषद् की ओर से यह प्रयास जारी है कि चिरांद का बौद्धिक, सांस्कृतिक व धार्मिक महत्व फिर से विष्व समुदाय के समक्ष उजागर हो। इन सबके अलावा चिरांद मंे उपलब्ध जल प्रबंधन के प्राचीन उपकरण वर्तमान विष्व को जल संकट से उबरने का संदेष देने में समर्थ है। गंगा तटीय क्षेत्रों में भी षुद्ध पेयजल व सिंचाई के लिए जल का अभाव है। तीन नदियों के संगम से निकला चिरांद का प्राचीन खनुआ नाला श्रेष्ठ जल प्रबंधन का ही अद्भुत माडल है। यहां के स्थानीय लोग कहते हैं कि सोन का रौद्र रूप देख गंगा व सरयू जी ठिठक जाती हैं। जब वह ठिठकती हैं तो पानी तट के ऊपर तक पहुंच जाता है। इसके बाद खनुआ नाला गंगा-सरयू के जल को सारण में दूर-दूर तक पहुंचा देता था। इस जल से सारण के सैकड़ों एकड़ में फैले चंवर अघा जाते थे। इसमें मछली पाली जाती थी वहीं कुआर के बाद जब खेतों में पानी की कमी होती थी तब चंवर का यह जल किसानों के काम आता था। चिरांद का वह खनुआ नाला और पुराना फाटक आज भी है। लेकिन इस खनुआ नाला से होकर गंगा व सरयू के प्रसाद के रूप में मिलने वाला जल खेतों तक नहीं पहुंच रहा है। चिरांद विकास परिषद् जल प्रबंधन के ऐसे प्राचीन उपक्रमों को फिर से पुराने रूप में लाने के लिए प्रयासरत है ताकि इस स्थान को वर्तमान युग में विकास का माडल दे सके। तीन नदियों का संगम होने के कारण यह क्षेत्र जैव विविधता की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र की भौगोलिक संरचना भी अध्ययन व षोध की दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण है। इस प्रकार चिरांद जैव-भौगोलिक अध्ययन केन्द्र के रूप में भी विकसित हो सकता है। गंगा व नारायणी के संगम पर स्थित हरिहर क्षेत्र और सरयू के तट पर स्थित गौतम क्षेत्र के मध्य मंे स्थित चिरांद में वह सब कुछ उपलब्ध है जिसके सहारे इसे प्रमुख धार्मिक पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। धार्मिक मान्यता है कि गंगा-सरयू व सोन के संगम के जल से अरेराज स्थित सोमेष्वर महादेव का अभिषेक किया जाए तो षनिदेव की कुदृष्टि से बचा जा सकता है। सैकड़ों वर्षों से लोग चिरांद से जल लेकर अरेराज जाते रहे हैं। वहीं चिरांद के जीयछ पोखर के बारे में कहा जाता है कि यहां स्नान करने वाली महिलाओं को संतान सुख की प्राप्ति होती है। भगवान श्रीकृष्ण की परीक्षा में सफल होने वाले दानी राजा मोरध्वज ने अपने पुत्र का कटा हुआ षरीर इसी स्थान पर फेंका था। बाद में श्रीकृष्ण की कृपा से राजा मोरध्वज के पुत्र ताम्रध्वज फिर से जीवित हो गये थे। इसके बाद से इस स्थान की महिमा अपार हो गयी। चिरांद का वह जीयछ पोखर आज भी है लेकिन अत्यंत दयनीय स्थिति में। चिरांद के तट पर विष्व प्रसिद्ध संतों ने तपस्या की थी। उनकी स्मृतियां आज भी जीवित हैं। चिरांद का गौरवषाली अतीत तभी फिर प्रकट होगा जब इस धरती के सपूतों की स्मृतियां संरक्षित व दर्षनीय होंगी। यह स्थानीय लोगों के सहयोग व प्रयास से ही संभव होगा। चिरांद विकास परिषद् इसके लिए प्रयासरत है। (लेखक चिरांद विकास परिषद् के अध्यक्ष हैं।)